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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

भक्तिकी आवश्यकता

जनसामान्यके लिये भक्तिका मार्ग सुगम है एवं ज्ञानका मार्ग कठिन है, परन्तु जिन्होंने ज्ञानको समझ लिया है उनके लिये वही सुगम है। भक्तिका सिद्धान्त ही श्रेष्ठ है, यह बात कहते हुए भी ज्ञानका सिद्धान्त मुझे कठिन नहीं मालूम होता, पर औरोंको कठिन मालूम होता है।

मैं बाल्यकालमें भगवान्का चित्र सामने रखकर उसके मुखारविन्दमें ध्यान लगाकर कल्पना करता कि चित्र हँस रहा है यानी उसमें कल्पना करके क्रिया देखता कि इसमेंसे भगवान् प्रकट होंगे। ध्यान रहनेसे मेरा मन प्रसन्न रहने लगा। तर्कसे देखा जाय तो चित्र मात्र कागज और शीशा है, परन्तु श्रद्धा बड़ी भारी चीज है। मूर्तिपूजाकी व्यवस्था बड़ी सोचकर की गयी है, मूर्ति चाहे कागजकी, चाँदीकी, लोहेकी, किसी भी वस्तुकी हो, श्रद्धासे साक्षात् भगवान् प्रकट हो जाते हैं। मैंने साधु एवं अन्य कारण मेरी श्रद्धा बहुत अधिक रही, क्योंकि वे समझते थे कि यह साधक है। जिन सैकड़ों साधुओंको मैं अच्छा समझता हूँ उनमें दो-चार ही परमात्माको प्राप्त हैं। जो लक्षण गीतामें, वेदोंमें लिखे हैं, वे सोलह आने मेरे मनपर जम जायें, तब मैं उसे साधु मानता हूँ। वास्तव में जो सच्चे साधु हैं वे कसौटीसे भी छिपकर रह सकते हैं। यदि मुझे यह निश्चय हो जाता कि इस युगमें यह होना असम्भव है तो मेरी प्रकृति जैनियोंकी तरह हो जाती। ईश्वरकी दया सबपर है, पर मैं मेरे परिश्रमकी तरफ खयाल करूं तो मुझे कुछ भी परिश्रम नहीं मालूम देता। पर जितनी दया परमात्माकी मुझे मालूम देती है वह शायद ही किसी और पर हो। मुझे ऐसा प्रतीत होता है मानो भगवान्की मेरेपर बहुत दया है।

बाल्यावस्थामें वेदान्तके ग्रन्थ योगवाशिष्ठ, विचारसागर, पंचदशी आदि सब देखे थे, परन्तु स्वामी शंकराचार्यजीके अद्वैतवादमें काफी श्रद्धा रही, पर परमात्माकी प्राप्ति होनेपर भी यदि झूठ, कपट, अभिमान आदि रह जाय, उस पुस्तकको मैं देखना नहीं चाहता। उदाहरणके लिये विचारसागर और पद्धदशीको मैं गीताप्रेसमें आने भी नहीं देता हूँ।

गीताके ऊपर भक्तिमार्गकी जितनी टीका है, वह जितनी ज्यादा छपे उतना अच्छा है। ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग तो मुझे गाड़ीके दो पहिये-से दीखते हैं। व्याख्यानके समय मैं ज्ञानियोंके लिये ज्ञानी और भक्तोंके लिये भक्त बन जाता हूँ। मेरे पास एक पैसाभर भी गुंजाइश नहीं है कि दोनोंमेंसे किसीका भी खण्डन मेरी दृष्टिसे उतना कठिन प्रतीत नहीं होता। पर मैं सामूहिक दृष्टिसे कहता हूँ कि यदि भगवान्की मेरेपर विशेष कृपा नहीं होती तो मैं नास्तिक हो जाता। मैं वेदान्तको बुरा नहीं समझता। मैं मर्यादाका बहुत ज्यादा पक्षपाती हूँ। जहाँ मर्यादाकी कमी आयेगी वह मैं झट फेंक दूँगा। मैं मर्यादाप्रिय हूँ, मर्यादाका भक्त हूँ। जिन पुरुषोंमें मेरी श्रद्धा हुई है, उनके साथ श्रद्धाके कारण व्यवहार अच्छा होना चाहिये, पर वह मेरी त्रुटि है। नित्य प्रति अग्रिहोत्र, यज्ञ, दान आदि करना चाहिये। सिद्धान्तसे में इसे मानता हूँ पर मैं नहीं कर रहा हूँ यह मेरी त्रुटि है। इस तरहसे शास्त्रमें जो बातें बतायी गयी हैं उन बातोंमें मेरा इतना ऊँचे दर्जेका व्यवहार नहीं होता, वह मेरी त्रुटि है। मैं उनका आदर करता हूँ पर वाणीसे ही करता हूँ, कार्यरूपसे नहीं। मुझे यह मेरी त्रुटि समझनी चाहिये।

नास्तिकताके कारण जो दम्भ है वह तामसी है और मान-बड़ाईके कारण जो दम्भ है वह राजसी है। मैं नास्तिकतावालेको अधिक बुरा समझता हूँ।

जैसे एक आदमी निर्गुणकी उपासनामें जा रहा है, उसे जबरदस्ती कान पकड़कर सगुण में लगा दें, इसी तरह भगवान् की विशेष दयाके कारण मैं बच रहा हूँ। ज्ञानमार्गकी मैं निन्दा नहीं करता, पर ज्ञानके मार्गमें चलता-चलता गिर जाय, यह मैं ठीक नहीं समझता। कारण थोड़ा यही हो सकता है कि भक्तिके मार्गकी समयके अनुसार आवश्यकता है और ज्ञानमार्ग तो भगवान्ने एक दूसरा मार्ग भी उपलब्ध करा रखा है। जिस तरह दो रास्ते एक ओर जाते हैं और एक अंधा एक रास्तेसे जा रहा है, वहाँ किसी कुएँ या गड्ढेके आनेकी सम्भावना है तो वह प्रभु उसकी लाठी पकड़कर उसे दूसरे रास्तेपर कर देगा। सत्यभाषण, मर्यादा और निष्कामभाव-ये तीन चीजें मेरी प्रकृतिके ज्यादा अनुकूल हैं। चाहे कोई ज्ञानके सिद्धान्तपर चले, चाहे भक्तिके सिद्धान्त पर, ये तीनों चीजें आवश्यक हैं। यदि आचरण खराब है तो इनमेंसे कोई चीज भूली है। यदि निष्कामभाव है तो ठीक है, यदि नहीं है तो कुछ भी नहीं है। निष्कामभाव और उत्तम आचरण बहुत बड़ी चीज है। निष्कामभावमें क्या वैराग्य नहीं आ जाता ?

वैराग्यके अन्तर्गत निष्कामभाव आ जाता है। निष्काम कार्य है और वैराग्य फल है, वैराग्य निष्कामसे दूसरी सीढ़ी है। आसक्तिके त्यागके अन्तर्गत फलका त्याग है। एक ही श्लोकमें भक्ति और ज्ञान दोनों चीजोंका रहस्य दे दिया है। सिद्ध अवस्थामें आसक्तिका अभाव दिखा दिया, इसी प्रकार वह पहली सीढ़ी है। इसीलिये कहा गया है कि फल और आसक्ति दोनोंका त्याग करना चाहिये, क्योंकि दोनों एक-दूसरेके अन्तर्गत ही हैं।

मैं ज्ञानका जितना वर्णन करता हूँ उसका सीढ़ी-दर-सीढ़ी साधन करता हूँ पर भक्ति ईश्वरकी विशेष कृपाका फल है। ज्ञान तो मनुष्यकी अपनी बुद्धि है और भक्ति ईश्वरसे लेनी है। भक्तिका विषय ईश्वर-प्रेरणासे होता है और ज्ञानका विषय स्वाभाविक है, यह ईश्वरकी विशेष कृपाकी बात है। एक तो प्रकृतिकी प्राप्त बात हुई और दूसरी परमात्माकी विशेष कृपाकी बात है।

ईश्वरकी भक्तिके विषयमें सगुणभक्तिका विषय है। उस विषयमें कोई अपनी जानकारीकी विशेष बात कहे तो मुझे हँसी आती है। मैं कहता नहीं पर हँसी आती है, क्योंकि मुझे वह असली तत्त्वको प्राप्त दिखायी नहीं देता, उसके इर्दगिर्द घूमता दीखता है। उसका अपमान न हो इसलिये मैं खुलासा नहीं करता। जो कहता है कि भगवान्का भजन-ध्यान ठीक बनता है वह मूर्ख है। पर उसको तो मैं यही कहता हूँ कि ठीक है।

अगर कोई साधक साधन करता है, उसमें अनुचित किस तरह है। किसी महापुरुषसे उनकी भगवत्प्राप्तिके विषयमें प्रश्न करना अनुचित है। अगर आपकी उनमें श्रद्धा है तो वह प्रश्व बनता ही नहीं है। श्रद्धा है और परीक्षाके रूपमें प्रश्न करो तो उसका अपमान करना है। यह बात कोई मूर्ख बतायेगा तो इसका मतलब यह हुआ कि आपका कार्य सिद्ध नहीं हुआ, अतः यह चीज प्रश्र करनेलायक नहीं है। मैं तो उसे यही उत्तर दूँगा कि मैं इसका उत्तर देनेमें लाचार हूँ जो आदमी वर्षोंतक उसके पासमें रहेगा वह भी उसका अधिकारी नहीं है। यदि कोई परमात्माको प्राप्त पुरुष हो, उसके अनुकूल चले और उससे पूछे तो पूछना ठीक है कि नहीं? नहीं, उसका प्रश्न करनेका कर्तव्य नहीं है, वह आवश्यकता समझेगा तो अपने-आप बता देगा।

परमात्माकी प्राप्ति करके ही यहाँसे वापस जाना है। रहनेके लिये गीताभवन बन गया, चाहे बारह महीना, आजीवन वानप्रस्थाश्रममें रही। रही बात भोजनकी, यदि अधिक आदमी हों तो प्रबन्ध करे अन्यथा अपनी व्यवस्था कर ले। भोजनका प्रबन्ध तो करना ही पड़ता है, चाहे कहीं भी हों, यहाँपर कुछ आपत्ति तो है ही नहीं। यह बात तो है नहीं कि दूसरी जगह मिलती है और यहाँ कोई छीनता है, जो चाहे वह ले सकता है। एक-एक आदमी एक-एक कमरा लेकर भी रहे तो सत्संग के बाद रह सकते हैं। खूब एकान्तमें रहकर नौ महीनोंके लिये भजन-ध्यान करो। मनमें दृढ़ विश्वास कर लेना चाहिये कि भगवान्से मिलकर ही जायेंगे। तीन महीनोंके सत्संगका उसे जोर रहेगा ही, उसका कोई बुरा नहीं होगा। मकानकी कमीकी पूर्ति भी हो गयी है। छोटे-बड़े साठ कमरे हैं, पचास आदमीका तो पूरा प्रबन्ध है। गृहस्थ आदमी वानप्रस्थाश्रममें रहकर अपना जीवन परमात्माके भजन-ध्यानमें बिताना चाहे, उसके लिये यह सुगमता है। उसको पहले सालभरकी छूट दी जायगी, क्योंकि उसका रहन-सहन, चाल-चलन आदि देखा जायगा। हमारा तो ध्येय यह है कि परमात्माके भजन-ध्यानके लिये यह भवन है, ऐश-आराम, भोगके लिये नहीं। ऐश-आरामकी इच्छा हो तो अन्यत्र जा सकते हैं, यह भवन तो भजन-ध्यान करनेवाले गृहस्थोंके लिये है। तीन चीज शामिल होनेसे असली अमृत हो जाता है, यह तो अमृत है। जैसे कहते हैं बिना माँगे जो चीज मिले वह अमृत है, इस मकानमें जितना पैसा लगा वह अमृतमय है। बिना माँगे पैसे आये हुए हैं और हम जो बिना माँगे घोषणा कर रहे हैं वह भी अमृतमय है, तीसरा अमृत उसके लिये है जो उसमें रहकर भजन-ध्यान करे। एकान्त पवित्र देश, शुद्ध भूमि और रहनेका स्थान भी शुद्ध है। अमृतका फल अमृत है और अमृत भगवान् हैं। समता अमृत है। बासेकी रसोई अगर विषमतासे न बनायी जाय तो वह अमृत है। उसे गृहस्थ, साधु, मालिक, नौकर चाहे सो ले जा सकता है। साधु-संन्यासियोंके लिये बिना पैसेका अमृत है और जो पैसे दे सके, उनके लिये पैसा देकर अमृत है। पैसेकी चीज अपनी है यह मत समझो, न्याय ही अमृत है।

सबसे मेरी यही एक प्रार्थना है कि मेरा शरीर शान्त होनेपर भी यदि सत्संगका यह सिलसिला आप चलाते रहेंगे तो बहुत अच्छा है। भवन बनानेकी सफलता भी तभी है जब वह भजन-ध्यान-सत्संगमें काम आये। यह स्थान, यह वटवृक्ष परमात्माकी कृपासे बने हुए हैं, जितने दिनों ये चीजें कायम रहें अपना सिलसिला जारी रहे तो बहुत ही-उत्तम है। भविष्यकी कौन कह सकता है, पर मेरी तो प्रार्थना ही है कि संसारमें बचे हुए व्यक्ति यथाशक्ति इसकी चेष्टा करें। मकानोंमें बैठकर भजन-ध्यान और तो बहुत अच्छा है। जप, ध्यान, सत्संग यह चीजें आपको बिना याचना मिल रही हैं। हर एक भाईको यह खयाल रखना चाहिये कि सत्संगका प्रोग्राम लोगोंके लिये बहुत हितकारी है। जो शामिल होते हैं उनके तो लाभ है ही, पर जो पुस्तकोंमें सुनते हैं, पढ़ते हैं उनके भी लाभ है, वह व्यक्ति तन, मनसे इसमें लगा रहे यह औरोंके अलावा काफी अच्छा है। यहाँ तीसरी चीज धनकी आवश्यकता नहीं है। तन-मनकी आवश्यकता है। सबसे इन दो ही चीजोंके लिये प्रेरणा है। अगर स्वयं शरीरसे न आ सकें तो मन तो घर बैठे ही दे सकते हैं। व्यक्तिगत आदमीके कल्याणके लिये, अपने आत्मकल्याणके लिये तन, मन, धन सब अर्पण कर देना चाहिये। भगवान्के सम्मुख करनेमें जो सहायक नहीं है वह वस्तु कामकी नहीं है। जो भगवान्के काममें हमारी सहायता करे वही हमारा है। जिस तरह दुनियाका धन हमारा नहीं है, उसी तरह वह चीज जो प्रभुके सम्मुख करनेमें सहायता न करे, कोई कामकी नहीं है।

भगवद्भावोंका जो प्रचार करे वह सबसे उच्चकोटिका भक्त है, पुरुष है। जब मैंने गीताके अ० १८।६८-६९ श्लोक पढ़े तो मुझे बहुत अच्छा लगा। भगवान्ने यहाँतक कह दिया कि तुम्हारा-समान मेरा प्यारा भक्त न हुआ, न होगा और न है।

वाल्मीकिरामायणमें हनुमान्जीके प्रति भगवान्ने कहा कि मैं तुम्हारा ऋणी हूँ। हनुमान्जीने भगवान्की आज्ञाका पालन किया, उस समय कोई दूसरा हनुमान्जी-जैसा नहीं था, इसलिये भगवान्को कहना पड़ा कि मैं ऋणी हूँ और उऋण नहीं होना चाहता। गीता, रामायण एक ही हैं। वह रामचरित्र है यह कृष्णचरित्र है, वह त्रेता था यह द्वापर है। गीता अलौकिक ग्रन्थ है। पुस्तकें बेचकर, बाँटकर, व्याख्यान सुनकर, देकर जिस तरह भी हो गीताका प्रचार करना चाहिये। भगवान्ने किसी भी भक्तके लिये यह नहीं कहा है कि ऐसा भक्त न हुआ है न होगा। गीता प्रचारकके लिये कहा है कि इस तरहका भक्त न है, न हुआ और न होगा। यह परम सेवा है, क्योंकि यह परमात्माकी सेवा है। हमें निष्काम प्रेमभावसे तन, मन, धन, जनसे सेवा करनी चाहिये। भगवान्का सबसे ज्यादा प्यारा बनना है तो वही करो। जो व्यक्ति मेरी बात माने, वह मुझे जितना प्यारा लगता है, उतना मनुष्योंमें कोई भी नहीं लग सकता, फिर परमात्मा तो सबपर दयालु हैं। स्त्री-पुत्र यदि अनुकूल नहीं हैं तो वे प्रिय नहीं हैं। रामायणमें भगवान्ने यही कहा है-

सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।

वही मेरा सेवक और प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने। आज्ञा पालन करनेवालेसे अधिक प्रिय अनुकूल चलनेवाला है। एक प्रिय है, उससे अधिक प्रियतर और उससे भी अधिक प्रियतम है, उससे अधिकके लिये कोई दूसरा शब्द नहीं है। भगवान्ने प्रियतम कहा है। भगवान्के शरीरकी सेवा करनेवाला प्रियतम नहीं है, परन्तु उनके अनुकूल चलनेवाला प्रियतम है। भगवान्की कोई भी प्यारा नहीं हो सकता।

हमें भी गीता और रामायणके प्रचारकी चेष्टा रखनी चाहिये ये बहुत उच्चकोटिके ग्रंथ हैं, इनका प्रचार करना चाहिये। उसमें भी गीता परमात्माके मुखसे निकली है।

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।।
(महाo भीष्म० ४३।१)

'गीताका ही भली प्रकारसे श्रवण, कीर्तन, पठन-पाठन, मनन और धारण करना चाहिये, अन्य शास्त्रोंके संग्रहकी क्या आवश्यकता है? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान्के साक्षात् मुख-कमलसे निकली हुई है।'

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।
(गीता १८।६९)

उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।

उसीका जीवन सफल है, उसीके माता-पिता धन्य हैं जो इस मार्गपर चले। आज तुलसीदासजी नहीं हैं पर उनकी रामायण, हम भी गीताका प्रचार करें तो तुलसीदासजी ही नहीं, उनसे भी उच्चकोटिके बन सकते हैं।

परमात्माकी प्राप्ति तो कोई बड़ी चीज है ही नहीं। तुलसीदासजीने कहा कि रामसे भी बढ़कर रामका दास है, सकते, जितना उनका दास कर सकता है, क्योंकि भगवान् तो हुए सिद्ध और दास हुआ साधक। अगर संसारमें भक्त नहीं होते तो संसारमें उनका इतना नाम नहीं होता।

आज आपलोगोंको सिद्धान्त की, तत्त्वकी, मार्मिक और दार्शनिक बातें बतायी गयी, महात्माओंका रहस्य बताया गया। जो भगवान्के अनुकूल होता है उसका तो उद्धार हो ही जाता है, उसकी कृपासे अन्य हजारों-लाखोंका उद्धार हो सकता है, अत: ईश्वरके अनुकूल होनेसे बढ़कर कुछ है ही नहीं। अपनी आत्माका उद्धार तो ईश्वरप्राप्त पुरुषोंके अनुकूल होनेसे ही हो सकता है, परन्तु परमेश्वरके अनुकूल होनेपर सारे संसारका उद्धार कर सकता है। परमात्माके अनुकूल होनेपर चिन्ताकी कोई बात ही नहीं है। ऐसे पुरुष संसारमें बहुत कम हैं। महात्मा या परमात्माके अनुकूल हो जाना बड़े सौभाग्यकी बात है। जो परमात्माके अनुकूल हो गया, उसने परमात्माको एक प्रकारसे खरीद लिया। भगवान्को जिसने सर्वस्व अर्पण कर दिया, उसने भगवान्का ही सर्वस्व ले लिया, क्योंकि भगवान् तो प्रेमके भूखे हैं। इसलिये जो कुछ भगवान्का है वह हमारा है और जो हमारा है वह भगवान्का है। भगवान्की आत्मा उनकी हो जाती है और उनकी आत्मा भगवान्की, यह एकता ही सबसे ऊँची चीज है। ऐश्वर्य आदि तो उसके अन्तर्गत हैं। स्वार्थकी दृष्टिसे भी हमारी आत्मा अल्प है, जबकि भगवान्की विशाल। जब भगवान् बुला रहे हैं तो अपनेको तो तुरन्त शामिल हो जाना चाहिये। भक्तिके मार्गमें दो रहते हैं और ज्ञानमें एक ही रहता है। ज्ञानके मार्गमें तो एक ही स्वरूप होगा, भक्तिमें स्वरूप अलग होते हुए भी एकता रहती है अत्यन्त मित्रता रहती है। ऐसे मित्रकी हम भी खोज कर रहे हैं जिसका सर्वस्व अपना और हमारा सर्वस्व उसका हो जाय, क्योंकि भगवान् भी यही चाहते हैं हम भी यही चाहते हैं तो दोनोंका सौदा सलटा ली। आप हमारे लिये भगवान्से प्रार्थना करें और हम आपकी सहायता करें, क्योंकि भगवान्से मिलनेके बाद पहला नम्बर तो हमारा ही आयेगा, फिर आपका उद्धार होनेकी बात तो मामूली है। मनके प्रतिकूल चलनेवाले तो सैकड़ों मिले, पर अनुकूल चलनेवाला कोई नहीं मिला। भगवान् तो मिले होंगे? पर वे भी प्रतिकूल ही हैं। अगर अनुकूल होते तो आपका उद्धार बहुत शीघ्र हो जाता। यह बात हम कैसे कह सकते हैं कि आप हमारे मनके अनुकूल नहीं हैं, क्योंकि हम भी तो दूसरोंके अनुकूल नहीं हैं।

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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